एक किसान का जब अवतार हुआ

एक किसान का जब अवतार हुआ
तन पे कोई वस्त्र न था
था केवल हाथों में वो औजार लिए
भटकना न उसे अब जंगल - जंगल
न था सोना भूखे  पेट लिए

शिशुओं के उस रुदन को, जवानो के बाहुबल को
आकाश ने छप्पर अब  फाड़ दिया
माँ धरा ने भी हृदयी उपहार दिया
ऊगा तब एक दाना अन्न का
जिसने पेट भरा जन-जन का

उठ खड़ा उमंगित हुआ  हर तन-मन
बही जो   क्रांति-धारा , फैली  हर वन-उपवन
बलवती हो उठी नयी आशाएं
जीवन की भी  बदल गयी परिभाषाएं

बसने लगे अब गांव-नगर
मिल गयी थी उन्नत जो डगर
जय-जयकार तब पालनहार हुआ
एक किसान का जब अवतार हुआ  | 

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